सुनहरे नेवले की कहानी : ऐसा त्याग कहाँ? Hindi Moral Story

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साधारण दिखने वाले लोग ही दुनिया के सबसे अच्छे लोग होते हैं, यही वजह है कि भगवान ऐसे लोगो का निर्माण करते हैं।

ऐसा त्याग कहाँ? कहानी

बात महाभारत काल की है। कुरुक्षेत्र के निकट एक गाँव में एक नेवला रहता था। उसका आधा शरीर सुनहरा था और आधा सामान्य रंग का भूरा। उसकी इच्छा थी कि उसका शेष शरीर भी सुनहरे रंग का हो जाए। अपनी इच्छा पूरी करने के लिए वह देश-विदेश, नगर-नगर घूमा। वह जहाँ जाता, वहीं की भूमि पर लोट-पोट होता, परंतु रह जाता वैसा का वैसा ही। इससे वह उदास रहने लगा था।

एक दिन उसने निश्चय किया कि वह ऐसे स्थान को खोजेगा, जहाँ दयालु और निःस्वार्थ व्यक्ति रहते हो। ऐसा स्थान जहाँ बड़े-बड़े त्याग हुए हों, निर्धनों को दान देकर, भूखों को भोजन खिलाकर लोग स्वयं भूखे रहे हो। यदि ऐसी पवित्र धरती पर मैं लोट-पोट हो जाऊँ, तो मेरा शेष शरीर अवश्य ही सुनहरा हो जाएगा।



नेवले को ज्ञात हुआ कि महाभारत युद्ध में विजयी होकर महाराजा युधिष्ठिर भाइयों सहित यज्ञ कर रहे हैं। वहाँ निर्धनों को दान तथा भूखों को भोजन दिया जा रहा है। अवश्य ही यह पवित्र कार्य है, नेवले ने सोचा और कुरुक्षेत्र जा पहुँचा।

कुरुक्षेत्र जाकर वह यज्ञ मंडप से कुछ दूर एक वृद्ध के पास खड़ा हो गया। उसने देखा कि पाँचों पांडव अपनी विजय की ख़ुशी में अन्न-वस्त्र दान कर रहे थे। सभी ग़रीबों को एकत्र कर उन्हें भोजन कराना प्रारंभ किया गया।

देश के कोने-कोने से अभावग्रस्त लोग आ रहे थे और पांडव सभी को अन, वस्त्र और धन दान कर रहे थे। लोग प्रसन्न होकर वापस लौट रहे थे।

"पांडव कितने दयालु और निःस्वार्थ हैं! निर्धन व्यक्तियों के लिए कितना महान त्याग कर रहे हैं ये लोग कितना अद्भुत है यह सब ऐसा त्याग संसार में कभी नहीं देखा गया, " बूढ़ा बोल उठा।

नेवले ने क्षण-भर बूढ़े व्यक्ति की ओर देखा और बोला- “क्या यहाँ वास्तव में महान त्याग है? क्या उन्होंने अपना भोजन भी दान दे दिया? क्या उन्होंने अपने लिए कुछ भी नहीं बचाया है? यदि यह सत्य है तो यहाँ की भूमि पर लोटने से मेरे आधे शरीर का भूरा रंग अवश्य ही सुनहरा हो जाएगा।"

ऐसा कहकर वह नेवला उस भूमि पर लगातार लोटता रहा। एकाएक वह चिल्लाया- "क्या मैं सुनहरा हो गया हूँ? क्या मैं सुनहरा हो गया हूँ?"

बूढ़े व्यक्ति ने उसकी ओर देखकर कहा- "नहीं! तुम तो पहले की तरह आधे सुनहरे और आधे भूरे हो।"

"तब तुम जो कुछ कह रहे हो, वह सच नहीं है," निराश होकर नेवला बूढ़े व्यक्ति से बोला, “यह कोई बड़ा त्याग नहीं है, वास्तव में यह कोई त्याग नहीं है। यह यज्ञ तो उस उदार ब्राह्मण के सेर-भर सत्तू के दाने के बराबर भी नहीं।"

"तुम किस प्रकार कहते हो कि यह महान त्याग नहीं है? क्या तुमने स्वयं अपनी आँखों से नहीं देखा कि निर्धन और भूखे, अभावग्रस्त लोगों के लिए अन्न, धन और वस्त्र लुटा दिया गया? क्या तुमने कभी इतने धन का व्यय देखा है? क्या यह त्याग नहीं है?" आश्चर्यचकित होकर बोल उठा वह बूढ़ा व्यक्ति!

नेवले ने बूढ़े को त्याग का अर्थ समझाते हुए कहा, "त्याग का अर्थ है-स्वयं को वंचित कर दूसरों को देना।" इतना कहकर वह नेवला वृद्ध के सामने ज़मीन पर बैठ गया। उसने कहा- "मैंने एक बार सच्चा त्याग देखा था और उसी भूमि पर लोटने से मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया था। तभी से मैं उसी प्रकार के पवित्र स्थान की खोज में हूँ, जिससे मेरा शेष शरीर भी सुनहरा हो सके।"

वृद्ध ने नेवले से उस सच्चे त्याग की कथा सुनने की जिज्ञासा प्रकट की, जिसके द्वारा वह आधा सुनहरा हो गया था। दोनों आमने-सामने बैठ गए।

नेवले ने वृद्ध को कथा सुनाई, जो इस प्रकार थी- कुरुक्षेत्र के समीप किसी गाँव में एक ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र व पुत्रवधू के साथ रहता था। तपस्वी ब्राह्मण को भिक्षा में जो कुछ प्राप्त हो जाता, उसी से वह परिवार का भरण-पोषण करता। एक समय वहाँ अकाल पड़ा। भिक्षा से कुछ अन्न ब्राह्मण को प्राप्त हुआ। उसने सत्तू बनाकर चार भाग करके आपस में बाँट लिया।

उसी समय एक अतिथि वहाँ आ पहुँचा। ब्राह्मण ने अतिथि की सेवा की। अपना सत्तू उसे दे दिया। अतिथि फिर भी भूखा रहा। ब्राह्मण की पत्नी ने अपना हिस्सा भी उसे दे दिया, यद्यपि वह स्वयं भूख से व्याकुल थी।

ब्राह्मण ने अपनी भार्या से कहा- "प्रिये! यह तुम क्या कर रही हो? जो पुरुष अपनी स्त्री की रक्षा करने में असमर्थ होता है, वह संसार में महान अपयश का भागी होता है और परलोक जाने पर उसे नरकवासी होना पड़ता है। तुम भूखी हो। मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर पा रहा हूँ।”

ब्राह्मण की पत्नी बोली-"नाथ! हम दोनों का धर्म एक ही है। आप मुझ पर प्रसन्न हों और मेरा हिस्सा भी अतिथि को देकर
अपनी चिंता दूर करें।"

ब्राह्मण ने उसके हिस्से का भी सत्तू अतिथि को खिला दिया। अतिथि की क्षुधा फिर भी शांत न हुई। पुत्र ने अपने पिता से अपना हिस्सा भी देने को कहा। उसने कहा-"पिताजी! आप मेरा हिस्सा भी अतिथि को दे दें। मुझे इससे संतोष होगा। वह आधे पेट तो नहीं जाएगा। मैं इसी में पुण्य समझता हूँ। आप मेरे पिता हैं। पुत्र को चाहिए कि पिता की चिंता दूर करे। वृद्ध पिता का पालन-पोषण करे। पुत्र होने का यही कर्तव्य है।"

ब्राह्मण ने पुत्र के हिस्से का भी सत्तू अतिथि को दे दिया। फिर भी अतिथि का पेट नहीं भरा, तब पुत्रवधू ने अपना हिस्सा भी देने के लिए कहा। पुत्रवधू ने कहा- "बड़ों की सेवा करने से देह, प्राण और धर्म सबकी रक्षा होती है। आपके प्रसन्न होने पर मुझे श्रेष्ठ लोक की प्राप्ति होगी। अतः आप मेरा हिस्सा भी अतिथि को दे दे।"

ब्राह्मण ने कहा- "बेटी! तुम्हारे समान सुशील और धर्मपरायण स्त्री संसार में दुर्लभ है। तुम्हारी भक्ति देखकर मैं तुम्हारा सत्तू भी अतिथि को देता हूँ।" अतिथि यह देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। ब्राह्मण परिवार का त्याग देखकर सभी देवता, ऋषि आदि आश्चर्यचकित हो गए।

अतिथि ने कहा- "तुम्हारे तप और वरदान से देवता बहुत प्रसन्न हैं। तुमने ब्राहमण, दान, यज्ञ, तपस्या और विशुद्ध धर्म का पालन करके पितरों का उद्धार किया है। भूख से व्याकुल होने पर मनुष्य का ज्ञान, धैर्य और धर्म भ्रष्ट हो जाता है, जो मनुष्य भूख को जीत लेता हैं, वही स्वर्गलोक का अधिकारी होता है।

जिस मनुष्य की श्रद्धा दान में होती है, वह धर्म से कभी नहीं डिगता। जिसके पास कुछ नहीं है, वह उपयुक्त पात्र को एक अंजलि जल देकर ही महान फल प्राप्त कर लेता है। न्याय से प्राप्त वस्तु श्रद्धा के साथ थोड़ी-सी भी देने से जो धर्म होता है, वह धर्म अन्याय से प्राप्त बहुमूल्य धन देने से भी नहीं हो सकता। अब मैं तृप्त हूँ। अब मुझे अपनी यात्रा पर आगे बढ़ना है।"

ऐसा कहकर वह खड़ा हो गया। उसने उन लोगों को आशीर्वाद दिया और यात्रा पर चल पड़ा। उसी रात भूख से उस ब्राह्मण परिवार की मृत्यु हो गई।

ज्यों ही कहानी समाप्त हुई, नेवला चुप हो गया। ऐसा लगता था कि वह कहीं दूर देश के विषय में सोच रहा था। वृद्ध बोला- “तुमने पूरी कहानी नहीं सुनाई। यह तो बताओ तुम आधे सुनहरे किस प्रकार हो गए?"

नेवले ने आगे बोलना शुरू किया- "हाँ! उन चारों ने कितना महान त्याग किया है न। किसी भूखे के लिए उन्होंने अपना भोजन और प्राण सब दे दिया। मैं वहीं उस स्थान पर छिपकर यह सब देख रहा था। मैं उनके त्याग से अत्यंत प्रसन्न था। ऐसा त्याग मैंने कभी न देखा था।

आनंद से भरकर मैं वहाँ लोटने लगा। सत्तू के कुछ कण वहाँ भूमि पर पड़े थे। मैं उन पर गिरा और लोट-पोट हो रहा था।
उनके स्पर्श से ही मैं सुनहरा हो गया।

वे अन्न-कण इतने कम थे कि मेरे आधे शरीर में ही लग सके और आधा शरीर पूर्ववत् ही रहा। परंतु दुःख है कि अभी तक वैसा त्याग मुझे किसी भी स्थान पर दिखाई नहीं पड़ा और यह मेरा भूरा शरीर सुनहरा होने को प्रतीक्षारत है।”

किस भाँति जीना चाहिए, किस भाँति मरना चाहिए, सो सब हमें निज पूर्वजों से याद करना चाहिए।
पद-चिह्न उनका यत्नपूर्वक खोज लेना चाहिए, निज पूर्व-गौरव -दीप को बुझने न देना चाहिए ।।

मैथिलीशरण गुप्त

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